ग़ज़ल-1
सुनामी का, न तूफां का, न ही भूचाल का डर है।
चलायी नाव कागज़ की, बनाया रेत का घर है।
बहुत रोमांच आता है, कभी सुनना बुजुर्गों से,
कहानी उस हवेली की जो दिखती आज खंडहर है।
नहीं कुछ राम लाये थे, नहीं कुछ ले गया रावण,
जहाँ को जीत कर के भी गया खाली सिकंदर है।
न सोने से, न चांदी से, भरा माँ की दुआ से है,
कभी चाहो तो आ जाना, मेरे घर का खुला दर है।
खिला गुड़ संग पानी के जो सबने हाल पूछा तो,
लगा के गाँव तो मेरा शहर से लाख बेहतर है।
है पत्थर दिल, जुबां कड़वी, नहीं है आँख में पानी,
हुआ बीमार यूँ इंसा कि जीते जी गया मर है।
न वो अंधी, न वो बहरी, न हीं अंजान वो मुझ से,
हुक़ूमत है जरा उसके, चढ़ा रहता नशा सर है।
ग़ज़ल- 2
लगाने में बुझाने में शुबह से शाम करता है|
कभी पानी कभी घी का गज़ब वो काम करता है|
बुरी है मय मगर उसका जरा पीना पिलाना भी,
खुशी, गम के बड़े किस्से शहर में आम करता है|
तवायफ ही बना डाली जरा सी जिंदगी उसने,
सुना जबसे जमाने में यहाँ सब दाम करता है|
सियासी कम नहीं वो भी लगाके आग पानी में,
कहीं लाचार सा यारो पडा़ है राम करता है|
अलग दुनिया नयी उसकी अलग है ढंग जीने का,
दिनो को रात रातों को छलकता जाम करता है|
शुलगता खूब शोला सा वो इक सिगरेट के कस में,
धूआँ कर जिंदगी अपनी कजा के नाम करता है|
उगाना चाहता तो है हथेली पर 'मृदुल' सरसों,
मगर गई जोश में कोशिश बड़ी नाकाम करता है|
मृदुल कुमार सिंह
महाराजपुर ,चिलावटी
अलीगढ (उ. प्र.) 202142
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