टीकेश्वर सिन्हा की लघुकथाएं

ऐसा नसीब

माह भर ही हुआ था महनूर का हसिफ से तलाक हुए। अब उसके जेहन में हमेशा एक ही बात चलती थी कि नालायक व गैरजिम्मेदार शौहर के साथ रहने से बेहतर है एक लड़की का बिना निकाह किये ही रह जाना। बेचारी क्या करती लौट आई माँ-बाप की देहरी।अकरम व नाजिया को एक ही औलाद नसीब हुआ था। उन्होंने चूड़ियाँ बेच कर बेटी को पढ़ाया-लिखाया था। लेकिन क्या करते खुदा की मर्जी के आगे भला किसकी, क्या चलती है ? आज सुबह अचानक महनूर को उल्टी करते देख नाजिया ने पूछा- "हाय अल्ला... ! क्या हुआ बेटा.... कैसा लग रहा है ?" फिर तुरंत अकरम महनूर को गाँव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ले गया। चेक-अप से पता चला कि महनूर माँ बनने वाली थी। महनूर को हसिफ की बहुत याद आ रही थी। आँखें भरी जा रही थी। ख़ामोश खड़े अकरम और नाजिया को देख कह रही थी- "अब्बू... मैं क्या करूँ ? अम्मीजान ! अल्लाह किसी को भी ऐसा नसीब ना बख्श़े।"

वसीयतनामा

"एक ही घर में अब एक साथ रहना बहुत मुश्किल है बाबूजी। मुझे अपना हक चाहिए।" बड़े बेटे राजेश ने अपनी बात रखी।  "आज तुम्हें क्या हुआ राजेश ! पहले तो ऐसी बातें नहीं किया करते थे; और बेटे, एक साथ रहने में ही सबकी भलाई है।" बूढ़े व बीमार पिता गोपाल जी ने कहा- "देखो राजेश बेटे, तुम बड़े हो। समझदारी से काम लो बेटा। प्रेम, सहयोग व एकता से घर की उन्नति होती है।" लेकिन तुम्हें...?" 
 "लेकिन.... भैया ठीक ही कह रहे हैं बाबूजी।" गोपाल जी की आधी अधूरी बात पर छोटे बेटे सुजीत ने अकड़ते हुए कहा- "बाबूजी, अब एक साथ गुजारा सम्भव नहीं है। मैं भी उनके साथ नहीं रह सकता; चाहे तो आप मेरे साथ रह सकते हैं।"
 "मेरे बेटे...!  वृक्ष से अलग होकर पत्तियाँ मुरझा जाती हैं। यह पेड़ के लिए भी दुखदाई होता है। सो, मैं भी अपने जीते जी..." गोपाल जी आगे कुछ कह ही रहे थे, तभी राजेश कहने लगा- "ठीक है बाबूजी, पर आप अपना वसीयतनामा तो बना सकते हैं।"
 "मुझे भी वसीयतनामा से कोई ऐतराज नहीं है।" सुजीत ने संतुष्टि जताई। 
 फिर अपने श्वेत केश पर उंगलियाँ फेरते हुए गोपाल जी बिस्तर से उठे; और राष्ट्रपिता बापू की तस्वीर को एकटक निहारते रहे।
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टीकेश्वर सिन्हा " गब्दीवाला "
व्याख्याता (अंग्रेजी)
घोटिया-बालोद (छत्तीसगढ़)
सम्पर्क : 9753269282.

 
 


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