खानाबदोश - दीपक कुमार वशिष्ठ

 शीर्षक: खानाबदोश ( बंजारे )


खाने का ना होश है,
जिंदगी खानाबदोश है ।
चिथड़ों से ढकते है लाज को,
चुप रहकर कहते है अपनी बात को ।

टुकड़ों पर पलते है बच्चे,
चलते है, रास्ते तो है, मगर कच्चे ।
अजब जिंदगी का ये मोड़ है,
इसे चलाता तो कोई और है । 

कारवां गमों से रहा है भर,
खाली हाथ मुझे रहा है कर ।
आज मेहनत की दो रोटी है पाली,
कल जिंदगी की गोद
फिर रही खाली ।

बच्चों के चेहरे तो है रूखे,
पेट भी बिन रोटी के है दूखे ।
मां सोचती है जन्म दूं
या के मार दूं ,
नहीं है एक सूखी रोटी,
इन्हें कहां से चार दूं ।

नसीब पर अपने रोते हैं आए ,
गमों को छुपाते,
गमों को ढोते है आए ।
जीवन का कड़वा सच,
जब आंख खुली तो जाना ।
खानाबदोश जिंदगी है, 
मरते दम तक 
बस चलते जाना ।

--- दीपक कुमार वशिष्ठ , मथुरा, उत्तरप्रदेश 


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ