इन बारिशों में बरस जाती हैं, न जाने कितनी ही बरसातें,
कहीं खिल जाएं गुल,कहीं दे जाती अंतहीन पीड़ा ये जाते-जाते।
ऐसे में याद आती माँ बहुत, तुम्हारा आंचल वो प्यारी सौगातें ,
कागज की नाव ,कपड़े की गुड़िया और तुम्हारी प्यारी-प्यारी बातें।
रूठे हुए पल, वो छूटे हुए कल, फिर वापस क्यों नहीं आते?
मासूम बचपन, वो अपनापन,रुला ही जाते हैं ये मेघा जाते जाते ।
हो मन रीता, या कोई खालीपन, फिर हों लाख मेले, रास नही आते,
और अक्सर यूं ही बरसती रहती हैं, मन के भीतर ये बरसातें।
याद आती छत पर बूंदों की टप -टप,वो खट -खट करते दरवाज़े ,
रूठने पर मेरे, मेरी लाड़ो,मेरी गुड़िया, दुलार भरी वो तेरी आवाज़ें।
अब ना तो मां है ना आवाज़ें ना वो छत, ना मौसम, ना दरवाज़े ,
फिर क्यों चली आती हैं, मेरे घर बरसने,ये बेमौसम की बरसातें।
हाँ,माँ ऐसी ही होती है ********
माँ के लिए बस उसकी संतान ही,
उसकी सारी दुनिया होती है,
उनकी हँसी के लिए हर गम सहती है।
हाँ! माँ ऐसी ही होती है।
जिसमें हँसती-रोती जागती-सोती ,
वो सपनों के मोती पिरोती,
निर्मल नदिया सी वो बहती है।
हाँ ! माँ ऐसी ही होती है।
हर गम पर अपने, डाले सितर, (पर्दा)
बच्चे की उफ् से जाए सिहर,
क्या न वो बच्चे के लिए सहती है।
हाँ! माँ ऐसी ही होती है।
दिल मोम पर संतान की खातिर,
तजकर अपनी सारी फ़िकर,
शेरनी सी इस जंगल में विचरती है।
हाँ! माँ ऐसी ही होती है।
झूठे जगत मे, निर्मल छाया है माँ,
माँ की महिमा का आदि है न अंत,
इस तपते जीवन में बसंत सी सजती है।
हाँ! माँ ऐसी ही होती है।
माँ पर लिखे गए हों कितने भी ग्रंथ,
पूर्ण हो न सकी महिमा इसकी,
सृष्टि का रोम रोम नाम इसका जपती है।
हाँ! माँ ऐसी ही होती है।
अलका गुप्ता नई दिल्ली
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