सुखेंद्र की लघुकथा सगा कौन




मासूम सी थकी-थकी सरिता सुबह उठकर चाय बनाते बनाते सोचने लगी ऐसा मुझसे क्या हो गया। एक ही बेटा और एक ही बेटी थे। दोनों को पालने में कहां भूल हो गई? आज दोनों की शादी कर दी बेटी ससुराल चली गई, बेटा भी बहु के साथ रहने लगा...समय बीतते-बीतते एक पोता भी हो गया आराम से प्रेम से जिंदगी गुजार रही थी। पति सुरेश भी रिटायर हो गए और घर पर ही पूजा पाठ और दैनिक कार्य में व्यस्त रहने लगे। बेटे - बहु नौकरी पर जाते थे वापस आते जब तक सरिता घर का सारा काम करती, रसोई भी तैयार रखती शाम को खुशी - खुशी जीवन का लुत्फ लेते।
दिन बीतते जा रहे थे। सास-बेटी में टेलीफोन पर बातचीत होती रहती थी, जो बहु रश्मि को नागवार गुजरती थी वो सोचती यह सास- ननद मेरे खिलाफ ही बाते करते होंगे जिसकी सूचना पति राजीव जब भी शाम को घर पर आता तो अपने कमरे में अपनी समझ की कहानियां राजीव को सुनाने लगती थी, इक तरफा नकारात्मक बाते सुनते सुनते इक दिन अचानक इन सभी अविश्वास भरी बातों से तंग आकर राजीव ने फैसला लिया मम्मी-पापा के साथ नहीं रहेंगे।।
हम अलग रहकर हमारे बेटे  वैभव की देखभाल करेंगे और उसे सभी सुविधाएं देंगे जो यहां मां-पापा के साथ पूरे खर्चे नहीं कर पाते है,रश्मि को भी लगने लगा मैं कमाती हूं और पति राजीव भी छोटी मोटी ही सही नौकरी करते है उनसे जो भी आता है उसमें दोनों का और बच्चे का अच्छा पालन हो जाएगा ऐसे ही नकारात्मक विचारों के दबाव में आकर दोनों ने घर छोड़ने का फैसला लिया और घर से अलग हो गए
यही सोचते सोचते सरिता चाय बनाकर अपने पति सुरेश के पास कप लेकर आ गई सुबह - सुबह उदास देखकर सुरेश बोले पोते वैभव की याद आ रही है क्या इतना सुनते ही सरिता फूट पड़ी और बोली हां.... क्या मां - बाप बच्चों को अलग हो जाने के लिए ही पालते है ? क्या पैसा ही सब कुछ है हमारे पास क्या कमी थी जो इतना जल्दी प्रेम खत्म हो गया आपसी रिश्तों में... हमारा क्या कसूर रहा उनके लालन- पालन में कल को हमारा पोता वैभव भी बड़ा होकर यही सीखेगा और वो भी ऐसा सलूक करेंगा तो फिर राजीव- रश्मि कहां जाएंगे... दौलत के नशे में रिश्ते की मर्यादा भूल गए बुढ़ापे में किस बात की सजा दे रहे है?
इतना सुनते ही सुरेश ने ढांढस बंधाते हुए बोला जिस चीज पर अपना वश नहीं उस पर विचलित नहीं होना चाहिए समय का फैसला है। स्वीकार कर लेना चाहिए जिनके औलादें नहीं होती वो भी जीते है। जवानी के खुमार में अतार्किक निर्णय सभी को परेशान करते है, जिसकी सजा हम भी भुगत रहे है... यह तो अच्छी बात है कि मैं सरकारी सेवा से सेवा-निर्वत हुआ हूं और पेंशन आ रही है अब हम भावनाओं से ऊपर उठकर काम करना होगा सरिता तुम चिंता ना करो मैं अपनी प्रॉपर्टी की वसीयत इस तरह से बनाऊंगा कि जीते जी जो तकलीफ संतान ने दी है हमारे जाने के बाद मेरी तमाम चल-अचल संपति पर उनका कोई हक नहीं रहेगा।।
समय रहते वो गलती सुधार लेते है तब तो ठीक है अन्यथा जिदंगी भर अपने मां-बाप की गैर मौजूदगी का पछतावा उनके साथ रहेगा सरिता तुम भविष्य के चक्कर में अपना वर्तमान खराब मत करो,जो पल हमारे बच गए है उसे मुस्कान के साथ,आनंद के साथ और खुश रहकर बिताओ,जब संवेदनाएं नहीं रहे तो भावनाओं को भी जीने का कोई हक नहीं...
सरिता अब समझ चुकी थी गृहस्थी में सभी को मिलकर रहना चाहिए अगर कोई अलग होना चाहता है तो उसके हाल पर उसे छोड़ देना चाहिए,छोटी सी बची जिंदगी में पैसा, दौलत, प्रॉपर्टी और अन्य भौतिक सुविधाएं हम पर भारी नहीं पड़नी चाहिए। सब यही रह जाना है, चिंता और फिक्र में नुकसान शरीर का ही होता है और घर की खुशहाली के लिए अच्छे निर्णयों  पर अंकुश लग जाता है।।


सुखेंद्र कुमार माथुर"
जोधपुर (राज.)
मोबाइल 9782100250


 

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3 टिप्पणियाँ

sukhendra ने कहा…
आप सभी की टिप्पणी इक नई ऊर्जा का संचार करेंगी,उसके लिए थोड़ा सा समय निकालिए इस लघु कथा के लिए,
आपका प्रिय,
सुखेंद्र कुमार माथुर,
जोधपुर
Naresh Chawla ने कहा…
वाह भाई sukhendra जी शानदार अभिव्यक्ति आप के कथानक ने हमारे समाज में धीरे धीरे बढ़ रहीं एकल परिवार की परम्पराओं और उनसे होने वाली सामजिक और पारिवारिक अस्थिरता का सजीवता से चित्रण किया है बहुत बहुत शुभकामनाये 🙏
Naresh Chawla ने कहा…
वाह भाई sukhendra जी शानदार अभिव्यक्ति आप के कथानक ने हमारे समाज में धीरे धीरे बढ़ रहीं एकल परिवार की परम्पराओं और उनसे होने वाली सामजिक और पारिवारिक अस्थिरता का सजीवता से चित्रण किया है बहुत बहुत शुभकामनाये 🙏