सुषमा की लघुकथा अनपढ़

 इतने वर्षों बाद ,पहली बार आज मुकेश बाबू को अपनी  माँ के अनपढ़ होने पर खुशी हो रही थी।  बचपन में दोस्तों के मुंह से उनकी मां की  शिक्षा और डिग्री के बारे में जानकर उनके मन में बड़ा कोफ्त और शर्म  महसूस होता था।  मां  ,गांव की सुंदर- सुशील गृह  कार्य  में  निपुण बहुत  ही भोली महिला  थी। उन्हें  याद  है,  जब  कभी  भी वह मां पर नाराज होकर कहते "अंगूठा छाप "ही  रहोगी क्या? इस पर भइया भी उसकी बात का समर्थन करते हुए कह्ते  हाँ माँ ! मुकेश ठीक ही तो कह रहा है।  चलो अब पढ़ो। मां दोनों  बेटों को दुलार करती हुई कहने लगती-- अरे बेटा! तुम दोनों पढ़- लिखकर बड़ा  आदमी  बन जा , समझो मैं  पढ़  ली।  इसी तरह से समय  बीतता  गया । भैया की नौकरी विदेश में हो गई। धीरे-धीरे कर मुकेश बाबू का भी परिवार बढ़ने लगा । सब कुछ बदल गया। पिता जी भी नहीं रहे। मुकेश बाबू और उनकी पत्नी आज बेहद खुश थे। यदि मां अनपढ़ ना होती ,तो दोनों अचानक से ना तो करोड़पति  बनते ,ना ही भैया का  हक, अपने नाम  कर पाते।
 
सुषमा सिन्हा
वाराणसी
+91 93699 98405

 


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