गुलाब ने गुड़हल से कहा,बड़े तुम हो पर मैं हूँ राजा
कोई ना मेरे आगे टिक पाता,गुड़हल मुस्काया
कुछ ना बोला,खो गया वो अपनी धुन में
लगा पहाड़ी राग गुनगुनाने।
लगता था बगीचे से इक खेत,सुरीली बड़ी थी उसकी रेत
सांय-सांय की सरगम गाती,मंद-मंद थी वो मुस्काती।
बीज पड़े थे वहाँ अनगिनत,बरखा के लिए थे वो प्रतीक्षारत,
रिझा रहे थे मेघों को,गाकर मेघ मल्हार।
देख उन्हें गुड़हल सोच रहा था
भूमि पर बिखेर इन्हें,छोड़ देता है कृषक
इंद्र देव की कृपा पर,पलते हैं मदमस्त।
दूर पहाड़ी पर भी तो हैं,अनगिनत साथी ऐसे ही
जीते हैं बरखा को पीकर,धूप-हवा की खाद को खाकर
कोई ना इनको देखे भाले, फिर भी खड़े तनकर मतवाले।
देख रहा था गुलाब भी इधर,गुड़हल से बोला,सुन ओ बेख़बर!!
हम तो हैं नियति से धनी,मानव की प्रकृति से कब है बनी??
देख पत्थरों का जंगल है सजा,शीशम-देवदार को बना सिंहासन
पहाड़,मैदान और नदियाँ सारी,एक-एक कर रहा वो निगल।
हमें सजाता है,बागीचों में अपने,दिखाने प्रकृति से अपना प्रेम
तस्वीरें पर्वतों-झरनों की लटकाता है,बना सुन्दर-से फ्रेम।
गुड़हल-गुलाब हँसे गले मिल,पीली कनेर भी साथ मुस्काई
मिलकर सबने लहराते हुए,प्रेमभरी फ़िर रागिनी गाई।
अरुणा अभय शर्मा
जोधपुर(राजस्थान)
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