तप रहा धरा - गगन
तप रहा घर आंगन है,
इस भू पर रज - कण भी
चिंनगी बन जीवन जला रहे।
व्यापारी बन गईं हवाएं
शहंशाह बना सूरज है ,
इस भूतल पर नमी नहीं है
जल रहीं दूर्वा - दल हैं।
प्यास बढ़ी है चातकी की
दो बूंदें बरसा दो अंबर,
जल रही है मधुर तितिक्षा
आस बड़ी है स्वाति की ।
यह मन लांघता सागर है
दरिया तो सूखा -सूखा है
खारे जल से प्यास मिटेगी?
प्यासी माटी है वसुधा की।
वृक्ष लताएं आस लगाए
जोह रही हैं कब से वाट
रिमझिम रानी आ झट से
लग रहा सूरज का हाट ।
डा रेखा सिन्हा
राजगीर नालंदा बिहार
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