शशि किरन की लघुकथा तलब

"बड़ी तलब लगी थी साब..गला सूख रहा था..मुट्ठियाँ भिंचने लगीं थीं.. खून उबल रहा था..बाल नोच डालने का मन हो रहा था..शैतान सवार था...मुझे शिकार चाहिए था ।"
आरोपी के ऐसे कहते ही इंस्पेक्टर ने उसे एक झन्नाटेदार तमाचा रसीद कर दिया था..
"शिकार! वो भी बच्ची, महज़ चार साल की बच्ची का?"
इस पर वह वहशियों सा हँसता हुआ बोला, "बच्ची किसको चाहिये साब? पर मज़बूरी है.."
"कैसी मज़बूरी ?"
'साब! मर्द पर जब मर्दानगी सवार होती है तो मन में अप्सरा सी खूबसूरत औरत की तस्वीर बन जाती है, पर साब...ऐसी 'बला' अपन को कहाँ नसीब ! चरस पीने के बाद कहाँ पड़ा हूँ, होश ही नहीं रहता । मेरे जैसे को कहाँ मिलेगी ऐसी औरत ? मुझे तो अपना शिकार खुद ढूंढ़ना पड़ता है ।"
वह एक लंबी सांस छोड़ता हुआ बोला।
इंस्पेक्टर का खून उसकी बातों से खौलने लगा था। वह उस पर चीख पड़ा था..
"हरामखोर…! कुत्ते…! उस बच्ची की नन्ही देह से क्या मिला तुझे जो तूने उसे नोंच खाया ! "
"आसान शिकार होती है बच्चियाँ, बहलाना-फुसलाना, डराना-धमकाना आसान होता है, हल्का बदन दबोचना आसान होता है, एक हथेली से मुँह दबोचों और दूसरे हाथ से उठाकर भाग जाओ...एक तमाचे में बेहोश...हा... हा... हा.."
उस वहशी हँसी का अंत न था…!


- शशि किरन
- दिल्ली /एन. सी. आर.
88601 84809




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