डॉ. नीलिमा की लघुकथा भोर का अँधेरा

'अभी तो तंबू भी ठीक से गड़ा नहीं और उपर से ‘जुगनू’ का दो दिन से चढ़ा बुख़ार भी उतर नहीं रहा था ।'
 फ़टी साड़ी में पैबंद लगाते हुए लछमी का मन रो रहा था । उसका आदमी उसके पल्लू में दो बेटे बांधकर भगवान् के पास चला गया था ।
ये नट परिवार था जो गाँव गाँव, बस्ती बस्ती जाकर अपना खेल जमाते और जो थोड़ा बहुत पैसा आता उसमें जिन्दगी की गाड़ी खीचने मज़बूर थे । 'जुगनू' को उसके बाप ने ख़ास तैयार किया था । उसके जैसा करतब अभी तक कोई भी नट परिवार कर नहीं सका था । बहुत कोशिश की थी सभी ने।
'जुगनू का खेल मुख्य आकर्षण रहता है और कमाई भी अच्छी होती है । पर अब मैं क्या करूँ?' माँ का मन रो रहा था ।
"माँ!!" बड़े बेटे की आव़ाज पर उसने सिर उठाकर देखा ।
"माँ, उधर एक भोपा रहता है जो किसी भी बीमारी का शर्तिया इलाज करता है ।  जगना कह रहा था ।"
 आशा से माँ का दिल खिल गया । बीमार जुगनू को गोद में लिए बड़े बेटे के साथ वह भोपा से मिलने गई ।
भोपा ने जुगनू को देखा और कुछ झाड़ फूंक कर उसे कुछ पिलाया । थोड़ी ही देर में बेटे को पसीना आकर बुखार कम हुआ ।
"इसे घर ले जा, आज कुछ और जरूरी दवा बनाऊँगा ।कल सुबह पौ फटने के पहले आकर दवा ले जाना।"
दो दिन बाद मेले के भीड़ में लछमी ने खुद का और बच्चों का करतब दिखाया । भीड़ कुछ अधिक ही थी और जुगनू के खेल पर ख़ुशी- ख़ुशी लोगों ने पैसे बरसाए । पैसों की बारिश तो हुई लेकिन लछमी का मन कांप उठा था।   दो दिन पहले की भोर, अँधेरे से भी भयानक थी ।

डॉ. नीलिमा तिग्गा
नाशिक, महाराष्ट्र
7737911801


 

 

 

 

 

 

 

 

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