गंगा पर शाहीन की कविता

 गंगा की लहरों पर,
दीपक की तरह,
 छाती के बिछौने पर,
जब कोई फूल सोता है,
तो हिमालय,
 विंध्या, सतपुड़ा,
 सहसाद्री और,*
 अरावली की,
ऊंचाई - नीचाई,
सब डूब जाती है,
  उस सुख की अनुभूति में,
 स्त्री सनातन प्यास,
 बुझाने के लिए,
नहीं बनती है मां,
   बल्कि उसकी निष्पति है,
 अतंत: धरती हो जाना,
   डॉक्टर, संजीदा खानम,शाहीन


 

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