प्रतिभा की कविता आत्‍मा

  समय तू न कर पाया बुजुर्ग पापा को मेरे,
चाँदी हुए बाल हौंसले सदा होते फ़लक पे।

यादों की गलियाँ जुड़ती पापा की गलियों से,
समय तू न मोड़ पाया बचपन की गलियाँ।

सोना न था इतना पर गहरा होता वो सोना,
समय कभी न हर पाया बचपन पारस मेरा।

सरपरस्ती पापा की गमों को धकेले दूर कोसों,
खुशियाँ होती खुशियाँ संग खड़े देख सदा उनको।

गलियों से हो पार सड़कों को आई शहर दूसरे,
थक बैठ पसीना ढूंढे रुमाल कहाँ गया पापा का।

चेहरों पर नया चेहरा लगाये मिलते लोग नित्य,
मन बावरा चेहरों में ढूंढे चेहरा पापा का अपने।

‘होगी कब बेटा बड़ी?’ गूंज हर कोने में गूंजें,
मुड़ देख खड़ा पापा उम्र करती परहेजी अपनी।

‘आत्मजा’ बसती सदा दिलों में पापा के अपने,

पूछो कोई हमसे हम कहें पापा ही होती आत्मा।

प्रतिभा जोशी
अजमेर 


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