चाहे तुम मुझे ठूंठ बना दो
फिर भी मैं निकल आऊंगा,
मैं तो देना जानता हूँ
तुम्हारी तरह लेना नहीं,
तुम मानव
अपना स्वार्थ देखते हो,
हमें या हमारी उपयोगिता नहीं,
मैं हर तकलीफ सहन करके
तुम्हें छाया देता हूँ,
मुझसे ही वातावरण शुद्ध होता है
जिससे तुम सांस लेते हो,
मैं तुम्हें फल देता हूँ,
फिर भी तुम मुझे बेरहमी से
काट फेंकते हो,
क्या तुम्हें मालूम नहीं
मेरे बिना प्रकृति अधूरी है ?
मैं तो प्रकृति का
वो अभिन्न अंग हूँ
जिसके बिना धरा पर
जीवन मुश्किल है,
फिर भी मुझमें
तुम्हारी तरह अहंकार नहीं,
तुम मुझे काट फेंकते हो
और मैं तुम्हारे लिए
हर हाल में निकल आता हूँ,
क्योंकि मैं देना जानता हूँ
लेना नहीं,
जरा विचार करना
ये अत्याचार मुझपर
कर रहे हो या खुद पर ?
तुम मानव हो,
बुद्धिजीवी हो,
मेरी तरह पेड़ नहीं,
तुम बोल सकते हो,
मेरी तरह मूक नहीं,
फिर भी यदि
तुम मुझे काटोगे तो
मैं वसुधा और तुम्हें
बचाने के लिए आ जाऊंगा,
लेकिन सोचो कब तक ?
--
पूनम झा 'प्रथमा'
जयपुर, राजस्थान
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