डा०नीलिमा की लघुकथा हौसलों की उङान

सुबह से ही त्रिशा की माँ  घर के हर एक कार्यो को यंत्रचालित सी करती जा रही थी । किन्तु बार-बार उसके  मन में बस एक ही प्रश्न आकर खङा हो जाता कि क्या ! आज मेरी बेटी को देने की बारी है अपने डैने 

 
उसे याद है उसने कोशिश की थी एक दबी आवाज़ में  अपनी अजब उङान भरने की  पर नहीं भर सकी देर तक परिवार के नाम पर ।  एक  लङकी की कैरियर को परिवार के संस्कार और मार्यादा का हवाला देते हुए कितनी  बेरहमी से काट दिया गया था उसके स्वप्निल  उङान के डैने को और धकेल दिया गया चुल्हा-चौका /जाता-ढेकी के घेरे में । बेबश छोङनी पङी थी उसे तब अपनी कैरियर की जिद, पर आज मेरी बारी है मैं हरगिज नहीं झुकुंगी और ना ही कटने दूंगी अपनी बिटिया की   दृढ़ संकल्पित होसलों से भरी सुकोमल पंखों को । वर्षों से मन के किसी कोने में छुपाकर रखी अपनी अधुरी अरमानों को आज निकालकर भर सकुंगी अपनी उङान को । लान मैं बैठे स्वराज और त्रिशा के फेमली सौहार्दपूर्ण शादी की  चर्चा में तल्लीन थे इसी बीच त्रिशा भी हाथ में मिठाई की डिब्बा लिए आ पहुंची । स्वराज लपकर  डब्बे से एक मिठाई लेकर त्रिशा को खिलाते हुए बोल उठा- बधाई हो सीनियर मैनेजर  त्रिशा मिश्रा जी ! मैं आपके कैरियर के हरएक उङान में सदा सहयोगी रहूंगा । इतना सुनते ही लान ठहाको से गूंज उठा । लान फूलों की खुशबू से महक उठा । सूर्यास्त से धूमिल  लोहित आकाश में कोलाहल करते , उङान भरते परिंदे अपने अपने घोसलों में भागे जा रहे थे, त्रिशा की माँ अपने गालों पर लुढके खूशी के आँसू को आँचल में चुपके से सहेजे जा रही थी ।

डा०नीलिमा वर्मा"निशिता"
मुजफ्फरपुर, बिहार ।


 

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