पूर्णिमा की लघुकथा विवशता


 मैं मां से मिलकर लौट रही थी मन मे भावनाओं का ज्वार उठ रहा था. पूरे  रास्ते एक द्वंद चलता रहा कब आटो वाले ने मंजिल पर ला खड़ा किया पता ही नहीं चला. मैडम उतरिये घूरेश्वर मंदिर आ गया. विचारों की श्रंखला में विराम लगा आजकल आटो वालों ने भी संबोधन मे तरक्की कर ली है बहन जी के स्थान पर मैडम को रिप्लेस कर दिया है. मैंने आटो वाले को पैसे देकर सामान निकाला बैग कुछ ज्यादा ही भारी हो गये थे मां की ममता पोटली दर पोटली वजन बढ़ा रही थी.मैने दर्वाजे पर पहुंच कर बेल दबाई मेरे दस वर्षीय पुत्र ने उछलते कूदते हुये बाल सुलभ चंचलता के साथ दरवाजा खोला.तेज नजरों से इंक्वारी करते हुये मेरे हाथ से बैग लेने का असफल प्रयास करते हुये बोला बहुत भारी है मां आपने इसमें पथ्थर भर रखे हैं क्या? नानू ने मेरे लिये क्या दिया? तब तक मेरी सासू मां और पतिदेव भी बैठक में पहुंच गये. काहे दुल्हिन अम्मा कैसी हैं तुम्हरी बचिहैं कि न बचिहैं राम जी रगड़ावैं न नहीं त बहुतय दुर्दशा हुई जहिहै.पतिदेव भी प्रश्नवाचक नजरों से देख रहे थे.मेरी आंखों के सामने मां का मुर्झाया पर उम्मीद भरा चेहरा घूम गया. उनकी थकी सी आवाज मेरे कानों में गूंज रही थी बिटिया इ सालिगराम, इ आशा मईया, इ कुड़हा मईया की बटिया अपने साथै लेत जैव इनमा पुरखन का आशीर्वाद और विश्वास है. तुम्हरी भौजाइ कहत रही इन गोल-गोल पथ्थरों की क्या जरूरत है अम्मा जी ज्वेलरी और फिक्स डिपाजिट हो तो बता दीजिये ताकि हम अभी से अरेंज करना शुरू कर दें अम्मा विवश और निशब्द. मेरे हाथ पीतल के कटोरदान मे रखी बटिया सहला रहे थे।
पूर्णिमा बाजपेयी त्रिपाठी

109/191 A, जवाहर नगर कानपुर, 208012  उत्तर प्रदेश
मो. 8707225101



 

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