मैं हूं पावन गंगा बहकर आई गंगोत्री से देखो
कितनी शांत ,पवित्र सुंदर तट, निर्मल जल धारा
सुबह शाम सूरज की किरणें करती सिंदूरी श्रंगार मेरा।
खाते सब सौगंध मेरी मैं हूं सबके जीवन का आधार
बहुत विस्तार था मेरा भी कभी
उछलती कूदती कल-कल करती मचलती,
हिमालय से मिल धरा पर उतरी,
बुझाने आईं थी प्यास सभी की।
बहुतों को किया भव पार नाविक भी थका न कभी
देखे हैं उसने आंसू मेरी ही सतह पर तैरते हुए
अभी ना देखे किसी और ने कभी
मलिनता बढ़ती रही दिनों दिन मैं असहाय हुई
सांस मध्यम हो रही टूट रही धारा मेरी
आखिर मेरी सांसों से तुम्हारी भी सांसे हैं जुड़ी
बचालो अस्तित्व मेरा देर न हो जाए कहीं
सब मिल कुछ प्रयास करो अखंड ने हुंकार है भरी,
पा जाऊं जीवन नया किनारे सिंदूरी डूब जाऐं मेरे सभी,
निरंतर बह चलूं अहर्निश,
फिर खाओ मिल कर गंगा की सौगंध सब अभी।
नीता चतुर्वेदी विदिशा लेखिका संघ
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