एक दिन धरती ने सूरज तुम इनदिनों मुझे बहुत जला रहे हो, इतनी गर्मी है देखो मेरा शरीर जलकर कैसे काला पड़ गया है। जगह - जगह पर जलने के निशान पड़ गए हैं। हरियाली बची ही नहीं है, नदी -नाले सब सूख गए हैं।' तब सूरज ने कहा कि सुनो धरा इसमे मेरी कोई गलती नहीं हैं।
धरती - कैसे नहीं है?तुम्हारी ही है जो तुम दिनों दिन भयंकर गर्म होते जा रहे हो।'
सूरज- माना मैं गर्म हो रहा हूँ पर इसमें मेरी गलती नहीं है तुम्हारे बच्चों की है जो अपने स्वार्थ के लिए पेड़ों को काटकर तुमपर से हरियाली मिटाते जा रहे हैं, नदी -नालों में गन्दगी भरते जा रहे हैं, जिससे वे सूख गए हैं। पेड़ काटने के कारण मेरी किरणे सीधे तुम तक पहुँचती है और तुम झुलसने लगी हो।' तभी प्रकृति जो इतनी देर से दोनों की बात सुन रही थी वो,'बोली की मैं भी इन सबमें असंतुलित होती जा रहीं हूँ, मेरा मुझपर कोई संतुलन ही नहीं रहा,अब तुम्हें ही कुछ करना होगा धरा। क्यूँकि मैं अगर अपने पर आ गई तो फिर बहुत विनाशकारी हो जाऊँगी, फिर मुझे किसी की भी पुकार नहीं सुनाई देगी ।
तभी बूढ़ा बरगद का पेड़ जो चुप था बोल पड़ा,' अच्छा ही है ना प्रकृति उन इंसानों को भी कहाँ हमारी और हमारे बच्चों की चीखे सुनाई देती है, बस हम पर कुल्हाड़ी चला देते है।
धरा - तुम सबको जो करना है करो, करनी का फल तो मिलेगा ही पर,मैं तो माँ हूँ,माँ तो हमेशा ही अपने बच्चों की खुशी देखती है चाहे उसके लिए खुद को ही क्यूँ न मिटाना पड़े।।'
दीप्ति शर्मा 'दीप '
जटनी ( उड़ीसा )
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