अफ़रातफ़री मची हुई है,चीत्कार चहुँ गूंज रही है,
कृत्रिमता की असंवेदित मन,लापरवाही झूम रही है।
हालाहल बन मौत सर्पिणी,बेगुनाह पे लगे ठहाके,
मरी वेदना बेदर्दी दब,कुपित अदालत गरज रही है।
गज़ब दास्ताँ हैवानों का,हमदर्दी भी बिलख रही है,
कराहती सरकार व्यवस्था,लाचारी भी बिदक रही है।
मानवता की कहाँ जगह अब,सहानुभूति ख़ुद बेसहारे,
अपनापन रिश्तों की ज़न्नत,ख़ुद अपने को खोज़ रही है।
अज़ब नशा है दौलत दुनियाँ,इन्सानों को कुचल रही है,
ऐय्याशी लाचार मुसीबत,बनी मौत बन मचल रही है।
मान ख़ुदा बंदे जो ख़ुद को,बदल खून पर्ची मुस्काते,
बेरहमी भी गज़ब नज़ारे,बेशर्मी भी फफ़क रही है।
बेजुबां आज अवदशा चरम,चिकित्सा चीत्कार रही है,
नवांकुरित शिशु खिली बागवां,दावानल में झुलस रही है।
अस्पताल उद्योग क्रीडाओं,अनधिकार चालित संस्थाएँ,
दानवीय शैतान ताकतें,निडर मौत बन दमक रही हैं।
कबतक आख़िर मौन प्रशासन,चीत्कारें बस पूछ रही है,
अब जागो कुम्भकर्णी सत्ता,सहनशीलता चीख रही है।
पचहत्तर आजाद वतन पा,नित दरिंदगी ख़ुद शर्माते,
बलिदानों की अमर कथा भी,आत्मव्यथा खुद लिख रही है।सुकून बनकर दिल में
सुकून बनकर दिल में तुम्हें मैंने बसा लिया है,
ख्वाहिशों के स्वप्निल जहां तुम्हें हमदिल सजा लिया है।
नशीली निगाहों की नशा में बिताए जो लम्हें,
यादों के गुलशरीं गुलिस्तां महफ़िल सजा लिया है।
मुखरे तेरी खुशियों को आईना बना लिया है,
अधूरे मंजिलें वफ़ा को तराने बना लिया है।
मैंने लुटायी खुशी को बेइन्तहां मुहब्बत में,
तुम मानो ना मानो, ख़ुद को तुझमें बसा लिया है।
सुकून बनकर दिल में तुझे आसियां बना लिया है,
मोहब्बत गुलिस्तां में खूबसूरत बना लिया है।
अहसास सजाए हमने अल्फ़ाज़ के कसीदों में,
वक्त के नज़ाकत में ख़ुद को सरगम बना लिया है।
डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचना: मौलिक (स्वरचित)
नव दिल्ली
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