पितृ दिवस एवं गंगा दशहरा पर आई रचनाएं-साहित्‍य सरोज

जय माँ शारदे
माँ ऐसी इह दुनिया की खजाना है,
जहाँ से हीरा मोती का सृजना है।

उससे गढ़ता हर सृष्टि की विधा ही,
कोढ़ी लूला और पंगु जनमना है।

तन से ही नहीं इन सृजनो मे ही,
मन धी से वो विकलंगता होना है।

पिता उस सृजन का सहभागी ही
जो संयोजन मे साथ देन रहना है।

वियोजन की जब घड़ी आती ही
संयोजन पटल सजाये रखना है।

सुख मे खुशियाँ बाट साथ रख,
दु:ख के पटल बिचलन देना है।

वह पिता ही होता  जनक बन,
जानकी सी माता मान देना है।
डाॅ ओमप्रकाश द्विवेदी ओम

"मां नमामि हम"
शिवाया मोक्ष प्रदायनी
दुहिता ब्रह्म तपस्वनी
हे नमामि भक्त वत्सले
तू वसुधा प्राण दायनी

भागीरथ तपस्या फलम
मां नमामि हम नमामि हम

दुर्गा रूप विराजितम
त्रिपथगा अतुल बलम
शम्भू जटा विराजित
जुनुहसुता बल प्रदम

तू जननी रूप निर्मलम
मां नमामि हम नमामि हम
 
त्रिलोक लोक तारणीम
तू दोष शोक हरिणींम
भजामि पूज्य पण्डिताम
आकाश पिंड धारिणीम
तू विष्णु पाद सु:शोभितम
मां नमामि हम नमामि हम

आत्मबल का संचार
विश्वास का अंकुरण
रोपित हो गया
मेरे दिल की ज़मीन पर
पिता का मजबूत
हाथ थामते ही।

हौसलों की उड़ान
होने लगी दिन प्रतिदिन
ऊंची और ऊंची
बढ़ने लगा मेरा कद
सूर्य के उजास की तरह
परिवक्व मन ने उठा लिया
जिम्मेवारियों का बोझ
पढ़ने लगा जिंदगी की
नई इबारत हर लिपि में
निष्ठा की जमीं पर पैर जमाए
किंतु फिर भी जब मेरे कदम
लड़खड़ाए, मन सहमा
गुमशुदा-भाग्य की जब
करने लगा शिकायत
बैठने लगा दिल हताशा से
तब विह्ल मन स्नेह सिंचित
किया
बचपन वाले पिता ने
अपने बूढ़े हाथों से
मेरे हाथ
यूं थपथपाए जैसे
जगाना चाहते हों सुप्त अवस्था से
दे रहे हो अनंत आकाश
नापने की शक्ति का मंत्र
कर रहे हो अपने इष्ट के
आत्मबल का संचार
मेरे रक्त में प्रवाहित।
रेखा दुबे विदिशा

कुछ ऐसे थे मेरे पापा
जो  सेवा कर पाएँ पितु की,
सबका ऐसा भाग्य कहाँ है!
पिताविहीन पुत्र को लगता,
सूना-सूना  हुआ  जहाँ है।।

जीवन   की   आपाधापी  में,
चित्र  तात  का रख न सका।
खड़ा  हुआ  अपने  पैरों पर,
स्वाद संग का चख न सका।

फिर भी ऐसा अनुभव करता,
आप-पास    ही    रहते   हैं।
साँस साँस में पूज्य पिताश्री,
मन    की   बातें   करते  हैं।।

मंगल   भवन  अमंगलहारी,
गा    गाकर    मुस्काते   हैं।
दुर्गा-दुर्गा    बड़े   भोर   ही,
सस्वर    टेर    लगाते    हैं।।

मन  मानस  में  बसे हुए हैं,
गुरुवर  पिता  समान  हुए।
नहीं  अभाव  खटकने देते,
वही  तात  प्रतिमान  हुए।।
विजय शंकर मिश्रा लखनऊ

हर हर गंगे---
कठिन भगीरथ तप
वरदान तुम्हे पृथ्वी पर
लाने रोके  कौन वेग
तुम्हारा ।।
शिव शंकर कि अर्घ
आराधना भगीरथ कि
करुण याचना ।।
भोले कि जटा में
स्थिर वेग तुम्हारा
जेष्ठ मास शुक्ल पक्ष
दशमी तिथि धरती पर
उदय तुम्हारा।।
गोमुख से उद्गम सागर से
मीलती गांगा सागर देव भूमि
पर पग प्रथम  तुम्हारा।।
हरिद्वार में हरि कि पैड़ी
प्रयाग में संगम यमुना
सरस्वती संग मिलन
तुम्हारा।।
काशी में विशेश्वर
अभिषेक साठ हजार
सगर पुत्रो का मोक्ष
संसय भय समाप्त
करती मोक्षदायनी
नाम तुम्हारा।।
सगर पुत्रो के तारन को
ही धरा धन्य पर पग तू
धरती गांगा मईया तेरा
अवनि पर आना नर पर
उपकार तुम्हारा।।
तेरा पावन तट साध्य
साधना तप तपसी
बसेरा धर्म मर्म कर्म
मार्ग तू तट तुम्हारा।।
माताओं में श्रेष्ठ मईया तू
संतानों का पाप क्लेश तू हरती
सांस प्राण कि काया जीवन को
आशीर्वाद तुम्हारा…
नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

जय गंगें
हमें आज जिस गंगा मैया
के आंचल की छांव है।
धन्य हैं बो भागीरथ साधु
हम छूते उनके पांव हैं ।
जिसके तप का सारी धरती
 ऋण कभी चुका ना पायेगी ।
धरा धाम पर लाकर गंगा
धरती का कल्याण किया
पतितों का उद्धार कराने
ऐसा अद्भुत काम किया।
यदि ऋणीं हो तुम भागीरथ के
तो अपना तुम कर्तव्य निभाओ
सदा निर्मला रहे
प्रदूषण से इसे बचाओ।
सच्चे भक्त यदि गंगा के
अपना भी कुछ फर्ज निभाओ।
इसके आंचल को मैला करने का
पाप नहीं तुम करना भैया
तभी हमारी श्रृद्धा भक्ति प्यार  दिखेगा
जय जय गंगा मैया
किरण भट्ट विदिशा

गंगा की अविरल धारा है,
जिसमें सब संसार समाया है।।
हम सब ये मिलकर संकल्प,अब हमें इसे प्रदूषण मुक्त कराना है।।
भागीरथ ने करी तपस्या  जो गंगा का अवतरण हुआ था तब।
हजारों वर्षों के तप से मिलीं गंगा महारानी अब
हे मातु हम सभी लज्जित हैं हमने किया है मलिन तुम्हें
अब करें ये प्रण कि सब मिलकर
गंगा को निर्मल करना है।
यदि नदी नहीं रहीं जग में तो क्या होगा ये सोचा है
हर तरफ ही होगा हाहाकार और फिर जीवन भी ना बच पाएगा।।
इसलिए अभी भी समय है थोड़ा तो ध्यान धरो  अब
गंगा दशहरा है आज लेकिन ले लो ये व्रत तुम सब
गंगा को हमें बचाना है, गंगा को निर्मल करना है ।।
डा अपूर्वा अवस्थी   लखनऊ

शीर्षक- मां गंगा की पीड़ा
निर्मल-निर्झर बहती थी
कल-कल निनाद करती थी
हां मैं नदी थी।
तृष्णा सबकी हरती थी
व्याकुल मन शांत करती थी
हां मैं नदी थी।
शीतलता सबको देती थी
जीवन में उमंग भर देती थी
हां मैं नदी थी।
पर अब, दिन-ब-दिन खोती जा रही हूं
मैं अपनी निर्मलता और शीतलता
सदियों से सबको जीवन देने वाली
आज मैं खुद ही जूझ रही हूं
बचाने को अपना अस्तित्व
आधुनिक कहलाने वाले
इन लोभी मानवों से
जो निज स्वार्थ मुझमें घोल रहें हैं
कूड़ा-कचरा रूपी विष
और छीन ले रहे हैं,
मुझसे मेरी निर्मलता।
हे! आधुनिक युग के सभ्य मानवों
विनती मेरी आज तुम सुन लो
एक उपकार मुझ पर कर दो
आदिकाल से देती आयी मैं
तुम सबको जीवनदान
उस उपकार के बदले
मुझको दे दो जीवनदान।
स्वरचित मौलिक रचना
रचनाकार- सुनील कुमार
पता-ग्राम फुटहा कुआं
गंगा मा
 दीपक की तरह,
 छाती के बिछौने पर,
जब कोई फूल सोता है, 
तो हिमालय,
 विंध्या, सतपुड़ा,
 सहसाद्री और,*
 अरावली की,
ऊंचाई - नीचाई,
 सब डूब जाती है,
उस सुख की अनुभूति में,
 स्त्री सनातन प्यास,
 बुझाने के लिए,
नहीं बनती है मां, 
 बल्कि उसकी निष्पति है,
 अतंत: धरती हो जाना,
 डॉक्टर, संजीदा खानम,शाहीन
पिता
जमीन से जुड़े हुए
गहरी दूर तक फैली जड़ों को
 संस्कारों से सिंचित कर
वटवृक्ष की विशाल छांव है पिता।
अपनी टहनियों ,पत्तियों को दुलारते पुचकारते
हरा भरा बागबान है पिता।
नेह के फूलों की महीन किंजल की
जहीन खुशबुओं के अक्षुण्ण
प्रेम का अटूट बंधन है पिता।
नीता चतुर्वेदी

पूर्ण  सलिल भागीरथी गंगा

गंगा सकल मुद मंगल मूला!
सब सुख करनी हरनि सब सूला
सब की तारण वारन गंगा
मानव मैली मत कर गंगा
 बच्चा बच्चाबोले गंगा
 बड़े बने नादान है गंगा
गंगा गंगा करते हैं गंगा
पूजा ना हो बिन गंगा
तरे ना ‌ हम बिन गंगा
मां मेरी हैं गंगा
मां सबकी है गंगा
रागिनी मिश्रा विदिशा मध्य प्रदेश



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