अरूणा लघुकथा दोपहर की चाय

“मम्मी!ओ मम्मी!अब चाय बना दूँ!”डिम्पल ने कुछ देर पहले ही घर के काम ख़त्म कर दुपहरी की नींद से शाम के लिए फ़िर से ख़ुद को तैयार करने की चाह में शाळ(बीच आँगन के आगे अन्दर की तरफ़ ऊपर से ढका हुआ,मगर बिना द्वार का खुला-सा स्थान) में आकर सोई हुई माँ को होले से झिंझोड़ कर पूछा। डिम्पल के मासूम चेहरे और डरपोक-से स्वभाव के कारण नींद से जगाने पर भी माँ उसे कभी गुस्से से डाँट नहीं पाती थी। इसीलिए माँ ने जरा-सा सिर घुमा दीवार घड़ी में समय देखा और वापस लेटते हुए बोला,”नहीं,अभी चाय का टाइम नहीं हुआ है,साढ़े चार बजे बनाना।”
एक तो नया-नया चाय बनाना सीखा,उस पर बाबा, मम्मी और सबसे ज्यादा भैया ने तारीफ़ भी कर दी थी।बस अब तो बड़े आनन्द से डिम्पल ने दुपहरी की चाय बनाने की जिम्मेदारी ही ले ली।हर नये काम को करने और सीखने के लिए हमेशा उतावली जो रहती है।
माँ की फिर आँख लग गई, लेकिन वो घड़ी की हर टिक-टिक के साथ चाय बनाने की हामी मिलने के इंतजा़र में बेसब्र हो रही थी।”मम्मी अब टाइम हो गया, मैं चाय बना लूँ!?”पूछते हुए ही वो रसोई में जा घुसी,चाय बनाने।माँ ने घड़ी देख ली थी,पर कुछ नहीं बोलीं।दस मिनट बाद डिम्पल चाय लेकर आ गई और माँ को फिर आवाज़ लगाई,”मम्मी चाय बन गई।”
माँ ने उससे पानी मँगवाकर पीया और चाय का अपना स्टील का कप-प्लेट हाथ में लेते हुए मुस्करा कर डिम्पल से पूछा,”टाइम क्या हुआ है,बता तो?”सब हँस रहे थे और धीरे-से मुस्काते हुए सिर नीचे किए हुए डिम्पल बोली,”चार-पच्चीस।”
कुछ वर्षों बाद…
आज भी वही दुपहरी की चाय बनती है।वही साढ़े चार का समय है,लेकिन आवाज़ बदल गई है।
माँ के साथ काम ख़त्म करवा,दोपहर की शांति में पढ़ने बैठी डिम्पल की कब आँख लगी,उसे पता ही ना चला और माँ की आवाज़ की आवाज आई,”चल उठ जा,चाय बन गई।”घड़ी देख वो बोली,”मम्मी!!!!अभी तो चार-बीस ही हुए हैं ना!!”
“कुछ याद आया!??”माँ के इतना कहते डिम्पल के साथ-साथ सब हँसने लगे।
अरुणा अभय शर्मा
जोधपुर(राजस्थान)


 

 


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