गंगा पर रेखा की कविता

 हृदय नील गगन शोभित
विधु हर्षत जल धार में ,
तट तरुवर तमाल भींजत
मुख निरखत जल धार में!!

है सिंदूरी तन-मन मगन
गंग जल धार का ,
उन्मादित कर गया मन ये
दृश्य सारे संसार का,

नवल निर्मल वधू सी सलज्ज
निर्मल नीर धन ,
है हिमालय के तटों से जूझती
संगीत बन ,

उर गर्वित सलिल सरिता
भ्रमण करत संसार में !!

तट तरुवर तमाल भींजत
मुख निरखत जल धार में!!

हैं शंख,सीपी अतुल भंडार
रत्न का मोती भरे ,
वसुंधरा को हरपल नव-
जीवन से संचित करे ,

सांझ  के आगोश में ये मन
खो गया है कहीं ,
गोधूलि की धूल से तारे छुपे
हैं यहीं कहीं ,

मौन हो कर ये निर्लिप्त हो गई
संसार भार में

इठलाकर नौका विहार से
कर रही है मना ,
उस पार बैठे प्रेमी का मन
हो रहा है अनमना ,

विस्मित है चाँद आज क्यों
तरनि तनुजा थमी थमी ,
मांग फिर भी भर रही है
सिंदूर की ये घनी घनी ,

बीत ना जाये ये रात कहीं सागर
 की मनुहार में ,
रेखा दुबे
विदिशा मध्‍यप्रदेश


 

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