गंगा पर ज्योति की कविता


पहले बहा करती,  हीरक हार सी गंगा।
अब, भीत नारी सी दुर्बलकाय है गंगा।।
दिखा स्वर्गमार्ग, करती थी पूर्ण मनोरथ।
अब खो रही देखो स्वयं का मान है  गंगा।।

ब्रह्मकमण्डल में जो होती थी शोभित।
गंदी नालियों का मिलन स्थान है गंगा।।

सद्यस्नात सुंदरी उदधि-मिलन को आतुर।
पर बँध गए घाट अकेली रोती है गंगा।।

गंगे आरती में झूम, नाचते-गाते थे लोग ।
आज उसकी आरती भी व्यापार है गंगा।।

डॉ ज्योति मिश्रा


 

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