गंगा पर विजयशंकर की कविता

 
अंबर में रवि की अरुणाई लहरों पर प्रतिबिंबित होती।
कूलों पर तरुओं की छाया गिरिमाला सी चित्रित होती।।
है अपार जलराशि गंग है शांत स्निग्ध उकताई सी।
तरुणी जैसी मंथर गति से चलती कैसी सकुचाई सी।।

आ गयी आज मंजिल समीप हिमगिरि से उतरी है कब की।
मैदानों को सींचती हुई पावनी सदानीरा सबकी।।
गोमती मिली गाजीपुर में थी सई आदि को मिला लिया।
 यमुना सरस्वती संगम ने है तीर्थराज का सिला दिया।।

भागीरथी हुई आगे गंगा की यही कहानी है।
यह पतितपावनी सलिला है इसकी अनबूझ रवानी है।।
गंगा सागर में मिलती है गंगा सागर कहलाता है।
जिसने गंगा में स्नान किया वह मति आगर बन जाता है।।

विजयशंकर मिश्र 'भास्कर'
लखनऊ


 

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