माँ याद है न तुम्हें,बचपन में तुमने मुझे एक बार जोर से डाँटा था और मैंने गुस्से में स्वयं को कमरे में बन्द कर लिया था। तुम्हारे बार-बार मनाने पर मैंने किवाड़ तो खोल दिए किंतु सिसकते -सिसकते लगभग मेरी साँस बंद होने लगी थी । वो मेरी पहली और अंतिम डाँट थी,जो तुमने लगाई थी। किंतु अब तो डाँट जैसे मेरे जीवन का अभिन्न अंग बन गई है,सिसकती तो अब भी हूँ पर अब साँस बन्द नहीं होती । तेरी बेटी बहादुर जो हो गई है...
आँखों से आँसू पोंछते हुए उसने चिट्ठी को करीने से मोड़ कर सबसे नजरें बचाते हुए छिपाकर रख दिया, कभी ना भेजने के लिए । फिर चेहरा धोने के उपरांत पुनः अपनी गृहस्थी को सँभालने में व्यस्त हो गई ।
किरण बाला(चण्डीगढ़
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