अलका की लघुकथा उड़ान

                            
आज पाखी की सांसे जैसे उसके मोबाइल में ही अटक कर रह गईं थीं।किसी भी काम में उसका मन नहीं लग रहा था। "सुबह से ना कोई कॉल ना कोई मैसेज, ये लड़का भी न। कोई टीचर भी फोन नहीं उठा रहीं, क्या करूँ। पहली बार मुझसे दूर गया है। लेकिन दोस्तों, टीचर्स के साथ पिकनिक पर जाते हुए मोनू कितना खुश था" विचारों के जुगनू  पाखी के मन में कभी जल कभी बुझ रहे थे। वह ड्राइंग रूम के एक कोने से दूसरे कोने तक बैचेन होती हुई ख़ुद से ही बात किए जा रही थी।
तभी उसके लाड़ले की कॉल आ गई, कॉल पिक करते ही पाखी ने सवालों की झड़ी लगा दी। "हद् है बेटा! सुबह से ना कोई फोन ना मैसेज, तू ठीक है न बेटा? कुछ खाया पिया?" "अरे माँ" मोनू पाखी को बीच में ही रोकते हुए बोला, "रात सोने से पहले ही तो बात की थी ना। आज सुबह उठते ही यहाँ एक्विटीज शुरू हो गईं थी, अब ब्रेक में फोन देखा, आपकी इतनी सारी कॉल्स। करता हूँ आपको कॉल माँ, मैडम बुला रहीं है।" पाखी कुछ बोलती, फोन कट चुका था। ये मेरा मोनू बोल रहा था,  मेरा बेटा, जो मेरा पल्लू छोड़ता ही नहीं था।आश्चर्य में डूबी पाखी, सोफे पर लगभग गिर सी गई। एक टीस सी उठी थी उसके दिल में, परंतु 'बेटा अब बड़ा हो गया है' सोचकर , खुशी से ,छलक आए आँसू उसे धो गए। तभी बालकनी में रखे गमले में, जो कबूतरी अपने बच्चे को अपने पंखो में छिपाये बैठी रहती थी , वो भी आज बालकनी की रेलिंग पर नितांत अकेली बैठी थी, गमला ख़ाली था। पाखी का दिल माँ कबूतरी के लिए भी भर आया, और कह उठा...
"अरे पगली !क्यों उदास होती है, तेरे हों या मेरे, बच्चों को तो उड़ान भरनी ही है। हमें ही ख़ुद को समझाना , सम्हालना और मजबूत बनाना पड़ेगा। यह तो बच्चों की पहली उड़ान है, अभी तो पूरा आसमां फतह करना बाकी है।" और फिर पाखी उठ खड़ी हुई और एक सुकून भरी मुस्कान उसके होठों पर तैर गई।


अलका गुप्ता
   नई दिल्ली


 

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