रीत प्रकृति
वन बाग बगीचे रोते हैं,
मानव निद्रा में सोते हैं,
खेल रहा प्रकृति से मानव,
कब तक जागेगा ये मानव,
रोको विनाश की वेग धार,
कृतघ्न मानव ना समझे,
प्रकृति का हम पर उपकार,
कांटे पेड़ निरंतर मानव,
नहीं लगा ये कभी पेड़,
प्रकृति होये और विनाशक,
है गर्मी का प्रचंड कहर,
गांव बन रहे अब शहर,
पेड़
कहता पेड़ मत काटो,
मैं देती फल फूल तुम्हें,
सब जीवों का मैं हूं निवास,
सोचो और मुझे बचाओ,
पेड़ लगा धरा स्वर्ग बना,
मुझसे है तेरा अस्तित्व,
सारा विश्व मुझमें समाहित,
नहीं किसी का करता अहित,
फिर भी मानव स्वार्थ निहित,
कांटे मुझे,धरा करें वृक्ष विहीन,
पेड़ों से फल,मिले दवा हवा,
धरा का श्रृगार,दूं आक्सीजन,
नहीं जीवित मेरे बिन जन,
कुर्सी,टेबल बने, पंछी बसेरा,
बन जाता है सुन्दर सवेरा,
पेड़ों से बारिश,फसलें लहरायें,
मैं सबका जीवन आधार,
दोस्त,संरक्षक,शान प्रकृति की,
झूला झूल ,सुख पाते सब,
करो ना तुम विनाश अब,
वर्ना बढ़े गर्मी प्रकोप,
कोई ना विपदा को सके रोक,
धरा संतुलन रहने दो,
ठंडी हवा बहने दो,
मत कांटों पेड़,
करो वृक्षारोपण।
मुझे बचा जीवन बचा।
वन्दना त्रिपाठी
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