डॉ सुषमा पंड्या की कविता पीड़ा

मुझे लुटा मेरे अपनों ने
जैसे मैं लड़की नहीं
लूट की सामग्री हूँ.
पिता ने लूटा, तब
जब पैरालाईसिस हुआ,माँ को
चुप रहना पड़ा माँ के
 सुहाग के खातिर.
मुझे लूटा मेरे अपनों ने
भाई ने लूटा तब
बहन यौवनावस्था में थी
जब पागल हुयी भाभी
चुप रहना पड़ा
घर के इज़्ज़त के खातिर.
 मुझे लूटा मेरे अपनों ने
 पति ने लूटा तब
जब तरक्की चाहिए थी
 चुप रहना पड़ा ,गृहस्थी
बच्चों के खातिर.
मुझे लूटा बहन ने
जब जीजाजी ने साली पर
लार टपकाए
चुप रहना पड़ा
बहन के प्यार की खातिर.
      मुझे लूटा मेरे अपनों ने
      गुरू ने लूटा तब
      जब उपाधि खटाई में पडी
      चुप रहना पड़ा
      इंक्रीमेंट के खातिर.
मुझे लूटा मेरे अपनों ने
सहेली ने लूटा तब
जब उसे नौकरी पानी थी
लड़की पेश करना था
चुप रहना पड़ा
दोस्ती की खातिर.
       डॉक्टर ने लूटा तब
       जब होना था ऑपरेशन
       चुप रहना पड़ा
       गरीबी के खातिर.
मुझे लूटा मेरे अपनों ने
माँ ने लूटा तब
जब पेट की भूख
सहा नहीं गया
चुप रहना पड़ा
ज़िंदगी के खातिर.
     मुझे लूटा मेरे अपनों ने
     क्या दोष था मेरा
     मैं तो मानव सेवा में लगी थी
     बस चंद मिनट का आराम था
    आँख लगी ही थी, तब
    दरिंदों ने मुझे नोच खाया
    न सोचा, न समझा,
क्यूँ  ?  मुझे लूटा मेरे अपनों ने
        मैं डॉक्टर,सभी मानव मेरे संबंधी
        मैं मानव सेवा में लगी थी
        मुझमें न बहन दिखी, न माँ
        न बेटी दिखी, न इंसा
        बस हाड़ मांस का लोथडा बना
        खा गये दरिन्दे मुझे,चबा गये
  उफ़! ये पीड़ा,,,,,,
   कैसे झेलती हूँ ?
   मैं नारी , उफ़!!ये पीड़ा,,,,,
स्वरचित :
डॉ सुषमा पंड्या
बिलासपुर
79877 78486

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