गीता की कविता

 

आज राहों में टकरा गई
मेरी ही उम्र मुझसे
तेज रफ्तार से दौड़ती भागती चली जा रही थी!!

आवाज दी रोका उसको
बोली जल्दी में हूं रुक नही सकती!
तुम थको मैं थक नही सकती!
जो रुक जाए वो उम्र कैसी
मैं तो हूं बहते पानी जैसी

कब तक ठहरूं अब तो जाना होगा!!
मेरा कहां कोई ठिकाना होगा
तुम्हारा बचपन देखा 
और देखी जवानी
अब चलते चलते यहां तक आ पहुंची
अब तो तुम्हे खाक होना है
ये उम्र का अब क्या रोना है

जो मिला जितना मिला बहुत था
कुछ पाया कुछ खोया होगा
तुमने बहुत कुछ देखा होगा
अब वक्त है थमने का
तुम रुके तो में भी रुक जाऊंगी
उम्र हूं तुमसे छूटी तो किसी 
और की हो जाऊंगी

सबका अपना अपना कर्म है
मानो बात बस यही धर्म है
गीता सिंह
रायगढ़


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