पलाश के फूल
देखती हूं मैं, तो
याद आती है, तुम्हारी
तुम- ही -तुम
आते हो नजर
दूर ,बहुत दूर तक ।
पलाश का पेड़
दिखता है ठूंठ सा,पर
विहंसता है फूल
बिखेरता है रंग
उस ढूंढ में चिपका सा,
दूर बहुत दूर तक ,
सोचती हूं मैं ,
पलाश आ जाता है क्यों ?
वीरानगी में, इस सूने
लहकते धूप में,
खिलता है क्यों ?
फागुन में
रास - रंग -भाव -गीत भरने
आ जाता है क्यों ?
केवल फागुन में ।
कहा था मुझे, कोई
संज्ञा दी थी उसने
पलाश की , पलाश
हां पलाश हूं मैं ,
खिलती हूं तपन से हर बार
धूप की तपन से, खिलती आई हूं
आती हूं जीवन -सौरभ लेकर
नहीं है रूप मेरा ,
नहीं है खुशबू मुझमें ,
नहीं है चाहत ,
मुझे पाने की लोगों में,
नहीं बन सकती मैं, शोभा
बैठक के गुलदान की,
गिरती हूं टूट कर ,पेड़ से
पर बिखरती नहीं,
समा जाती हूं पृथ्वी के आंचल में, आंचल सुलाता है , सुखाता है मुझको सुख कर भी जीना सिखाताहै,मुझको
है भरा मुझ में, रंग एक ऐसा
दे जाए जीवन एक अद्भुत सा
रंग रूपहला रंगीला मेरा
करते हैं कद्र मेरी ,बस
उस रंग को पाने में
देती हूं मैं रंग कुछ ऐसा
जीवन भर ना छूटे वैसा
जैसा चाहोगे रंग, पक्का
वैसा ही पाओगे मुझ में
भर दूंगी रंग मैं ऐसा
जीवन सौरभ रंगीन जैसा
रंगीन जैसा,जीवन सौरभ
सौभाग्य जैसा ।
विश्वरिकॉर्डधारी
डाॅ सुषमा पंड्या
बिलासपुर, छत्तीसगढ़
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