मैं जानता हूँ
तुम एक छलावा हो,
तपते रेगिस्तान में
मृग मरीचिका की तरह,
फ़िर भी, ना जाने क्यूँ,
मैं खिंचता चला जा रहा हूँ
सोचता हूँ
मैं तुम्हारे नजदीक आ रहा हूँ
परंतु नहीं
जितना ही करीब आना चाहता हूँ
तुम उतनी ही दूर होती जाती हो
ना जाने कौन सी आस है
तपती ज़िंदगी में ये कैसी प्यास है
मैं भटक रहा हूँ
परेशान
बावला होकर
इसकी परिणिति क्या होगी
मुझे नहीं मालूम.......
संतोष शर्मा साहिल"
गाजीपुर
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