जलते शव-गीता सिंह

 वो जलती रहीं चुपचाप
क्युकी वो अब शव  थी
वह खत्म हो रही थी
रिश्ते मिट रहे थे
अस्तित्व समाप्त हो रहा था
 महक  तो थी पर जलने हुए शव की
सब कुछ छूट रहा था
वो जो उसका था
वो जो उसका नहीं था  ,
पर कभी उसका ही था,
 पूरा या अधूरा
तो पीड़ा क्यूं, मुक्ति तो इनाम है
तो क्या उसका कुछ रह गया था
सब मिटाकर भी वो कहीं बच गई तो
थोड़ी सी
इतने आघात सहने के बाद भी
तो क्या ब्रह्मांड में उसके घाव यू ही भटकते रहेगे
तो क्या ये घाव भरना ही नहीं चाहते
जलता शव उठती महक उठते बादल
बदलता मौसम
शरीर से कहीं दूर आत्मा
पर दर्द जश का तश
तो क्या वो जिंदा है...नहीं..नहीं
अभी तो उसे आग लगाई गई थी
कुछ चंद मिंटो में जला कर सब चले गए
उस महक को सहन नहीं कर पाया कोई
वो जिसने सही जाने कितनी रुस्वाई, तन्हाई  
नासूर बने ज़ख्मों से रिसता पीप बहता रहा
लगातार  ..

पर उसे क्या वो तो शव है !...
गीता सिंह
रायगढ़



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