अश्विनी की लघुकथा -दुःस्वप्न

 



जाड़ों  की सर्द सुबह में,कोहरे को चीरती एक वैन,रामप्रसाद शर्मा के घर के बाहर आकर रुकी। अलका और अरुण ऑफिस जाने की  आपाधापी में  थे। 

“शर्मा जी हैं?” कॉल बैल की आवाज़ से अरुण ने दरवाजा खोला।

  “जी,आप कौन?” अरुण ने कहा । 

  “हम डे केयर सेंटर से उन्हें लेने आए है।” 

अरुण अवाक सा, जैसे जड़ हो गया हो । अलका, जो सुई की घड़ियों से तेज भाग रही थी, मानों अपनी जगह ठहर गई। 

तभी रामप्रसाद कमरे से बाहर आए।

 “पापा ये क्या है?" अरुण  की आवाज जैसे गहरे कुएं से निकली।

“अरुण ,अलका अखबार में विज्ञापन देखकर इन्हें मैंने ही बुलाया है।

 इस घर की दीवारें अब इतनी भी मजबूत नहीं की एक कमरे से दूसरे कमरे तक  आवाज ना पहुँचे ।कल मैंने,तुम्हारे  विदेश की नौकरी के ऑफर और मुझे लेकर कलह और दुविधा के बारें में सुना। 

मैं तुम्हारे भविष्य के सुनहरे पथ की बेड़िया नहीं बनना चाहता। अब तुम यह घोंसला छोड़कर उड़ने के लिए समर्थ हो ।

मैं अपनी पेंशन से पूरे आत्मसम्मान के साथ रहूंगा। तुम्हारा जब भी वापस लौटने का मन हो हम फिर साथ आ जाएंगे।” कहकर रामप्रसाद तनी गर्दन और कांपते हाथों से लकड़ी की काठी थामें वैन की ओर चल दिए।

     “अरुण…अरुण, अलका की आवाज से, अरुण पसीने से लथपथ ,हड़बड़ा कर दुःस्वप्न के काले अंधेरे से वर्तमान की रोशनी में जागा ।
अश्विनी देशपांडे

फरीदाबाद
फोन नं –९४७९५३०९०३


 

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