मन की चपल तरंगों पर यदि
पीड़ा शुभ अवरोध न होती
गति, दुर्गति में ढलती रहती,
मुक्त-कामना छलती रहती।।
विषम परिस्थिति की धरणी है,
प्रखर चेतनाएँ बोने को
सुन्दरतम व्यक्तित्व बीज से,
पुष्ट पल्लवित वृक्ष होने को
मेरे गुण,आचरण बिंब में,
परम निहित है नींव तुम्हारी
ओ रे दुःख! तुम दया के नहीं,
अभिनंदन के हो अधिकारी
पथ में यदि विचलन न टोकता
पाठ संतुलन क्यों पढ़ते हम ?
दिशा-भ्रमित जीवन की चकरी
बिना लक्ष्य ही चलती रहती
मुक्त-कामना छलती रहती।।
जीवन के ओझल पहलू से,
परिचय करवाती है पीड़ा
हर पहलू को सहज भाव से,
जीना सिखलाती है पीड़ा
सहज भावना से देखें तो,
सृष्टि-जनित हर रंग सुघड़ है
दोष देखने पर आएँ तो,
दिव्य चन्द्रमा भी बीहड़ है
पीड़ा से मुख मोड़ बाँसुरी
मधु-स्वर का वरदान न पाती
अति कोमलता स्वप्नों के मुख,
नित्य निराशा मलती रहती
मुक्त-कामना छलती रहती ।।
मनोज पाल सिहं
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