शरद ऋतु जा रहा,
ऋतुराज बसंत आ रहा,
पतझड़ के इस मौसम में,
बसंत ऋतु खिलखिला रहा।
सरसों के फूल खिले,
चकवा- चोरी के दिल मिले,
बसंत ऋतु का देख हाल,
शरद ऋतु ने बदली अपनी चाल।
गेहूं और जौ में बाली खिल आया है,
महाशिवरात्रि संग सरस्वती पूजन
का संगम भी मिल आया है,
देख इस पावन संयोग को
बसंत ऋतु ने भी अपना हाल
सुनाया है।
चकवा - चोरी ने प्रेम का अलख जगाया है,
देख इन दोनों के स्नेह- प्रेम को
बूढी मां ने फगुनहटा गीत गाया है,
बसंत ऋतु का राज माघ महीने
में छाया है।
अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य को देखकर,
सूर्य की किरणों ने भी अपना
तेज बढ़ाया है,
शीत ऋतु से सिकुड़े बच्चों - बूढ़ों को अब,
बसंत ऋतु ने अपने हाथों का
स्पर्श कराया है।
स्वरचित रचना -
ज्योति राघव सिंह
वाराणसी (उत्तर प्रदेश)
वर्तमान पता - (लेह लद्दाख
87368 43807
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