हास्य की शुद्ध रचना भुलक्कड़ बनारसी की कलम से--------
(1)
जब से हुआ हूँ पठ्ठा, बापू सनक गए हैं।
बाबू तो जानें क्यूँ, एकदम बहक गए हैं।
अब मांगते मारूति , फ्लैट भी चाहिए।
बारात उठाने को , नगदी भी चाहिए।
जो आते शादी को, पचमेल कट रहा हैं।
तय हो नहीं रहा , सिर्फ कर्ज चढ़ रहा हैं।
(2)
कभी बात लड़की पे, कभी दहेज पे कट रहा है।
वो जीद्द फाने हैं, बात नहीं बन रहा हैं।
माँ भी समझा हारी, बाबा भी हार गए हैं।
दीदी जीजा का भी ,एक नहीं सून रहें हैं।
सुन सुन कर सबकी बातें, हैरान हो रहा हूँ।
अड़ोस पड़ोस में, मैं जिल्लत झेल रहा हूँ।
(3)
उनको लगता है , मेरी शान बढ़ गई है।
बिरादरी में उनकी, आन बढ़ गई है।
लड़का है नौकरी में, वो भी सरकारी है।
लड़के के वास्ते, बिरादरी में मारामारी है।
कुर्ता झार लकालक, सुबह बैठ जाते है।
अड़ोस पड़ोस वालों को, रूतबा दिखाते है।
(4)
नौकरी तो बाबू का है, पर तेवर ऐसा हैं।
चार गाँव में, अपनी बदनामी हो रहा हैं।
करूँ तो क्या करूँ, समझ नहीं आता।
कोई समझाने वाला , सामने नहीं आता।
लगता है मेरी शादी, बाबू को नहीं भाता।
कृपा करों मुझ पे, मदद करों विधाता।
(5)
बाबू के लालच से , कुंवारा ही मरूंगा।
खड़ी जवानी में , मैं ही दुख सहूंगा।
सरकारी नौकरी , दुर्भाग्य बन गया है।
बाबू का मेरे, संतुलन ही खो गया है।
भगवान बाबू को, तुम ऊपर बुला लो।
किसी तरह भुलक्कड़ , की शादी रचा दो।
भुलक्कड़ बनारसी
बनारस
8417001866
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