साहित्य सरोज साप्ताहिक आयोजन क्रम -2
शीर्षक...गुलाब
कठिन बेहद जीवन डगर
चल पाना नहीं कोई सरल
वेदना का पीना पड़े जहर
वक्त के चक्रवातों का कहर
हैं नुकीले कंटक यहाँ मगर
परिश्रम न जाए कभी व्यर्थ
झंझावातों से निकल निखर
स्वेद भी बन जाता है सुगंध
देता सीख,"यही है जीवन"
नित गुलाब हमें प्रतिक्षण
सत्कर्मों की बिखेर सुगंध
भर ह्रदय में उमंग- तरंग
कोमलता का कर वरण
अन्याय का तू कर दमन
नित श्रेष्ठ का सम्मान कर
पीड़ा में भी तू श्रृंगार बन
जीवन में भर कर नवरंग
प्रीत का एक पैगाम बन
देता सीख,'यही है जीवन"
नित गुलाब हमें प्रतिक्षण
किरण बाला (चण्डीगढ़)
शीर्षक - गुलाब
शीर्षक...गुलाब
गुलाबों की पंखुड़ियां से तेरी खुशबू आती है,
तेरी बीती बातों की याद बहुत सताती है,
तेरे इश्क की चुनर ओढ़ के
गुलाबों- सा खिल जाती हूं।
तेरी प्यारी एक मुस्कान पर मैं खुश हो जाती हूं,
तेरी नटखट अदाओं पर मैं शरमा जाती हूं,
साथ जो तेरा होता है गुलाबों - सा खिल जाती हूं,
तेरी मासूमियत पर तुझसे लाड़ लगाती हूं।
वो मेरे सांवरे तेरे भक्ति में मीरा तो कभी रुक्मणी बन जाती हूं,
पनघट पर मुरली की धुन सुनकर दौड़ी चली आती हूं,
अपने हाथों में गुलाब रुपी थाली से तेरी आरती उतारती हूं,
तेरे पावन पवित्र प्रेम में मैं रम जाती हूं।
है तू मेरा आदित्य प्रियतम,
इस बात से मन ही मन प्रफुल्लित हो जाती हूं,
ले फूलों की सुंदर गुलदस्ता,
तेरी ही राह हरदम निहारती हूं।
ज्योति राघव सिंह
वाराणसी(उत्तर प्रदेश)
शीर्षक...गुलाब
खूबसूरत है तू
ख्वाब की तरह
ओस में भींगे
गुलाब की तरह
है सुरूर आँखों का
शराब की तरह
और तू, एक दिलचस्प
किताब की तरह।
एक अक्स है तू
गहरे अतीत से निकले
ज़न्नत के किस्सों की
किसी झील किनारे मंदिर के
पावन, मनभावन हिस्सों की
है तेरा शांत चितवन
तलाब की तरह
ओस में भींगे
गुलाब की तरह।
कोई अश्क़ थी शायद कभी
तू आकाश के आँखों की
या कोई हसरत
अमावस के उदास रातों की
हैं तेरे गालों की रँगत
गुलाल की तरह
ओस में भींगे
गुलाब की तरह ।
तेरे होंठों पे मुस्कुराहट की
हल्की-सी जो रेखा है
मैंने इसे कभी बागों के
गुलाबों में खिलते हुए देखा है
उमड़ती दरिया-सी हैं निगाहें
और अल्हड़ एहसास
सैलाब की तरह
ओस में भींगे
गुलाब की तरह।
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दिनेश कुमार राय
चंद्रशेखर नगर, गोला रोड, पटना
शीर्षक - गुलाब
अभी तो दिन ढला है जानां
कही ख्वाब उतरे है जानां,
तुम गुलाब सी महक रही
चांद सी चमक रही हो जानां,
अभी तो पहली बार है आना
करूं तुम्हारा दीदार जानां,
जिस तरह देखा था पहली बार
उसी तरह हो गया हूं अब सयाना,
गुलाब सा रख तुझ को जानां
सजदा करुं उस खुदा को जानां,
मेरे दिल-ए-सूकून मेरे यार
तुम कमाल हो चले जाना और आना,
मैने संभाल रखा है अब तलक वो जानां
मोबाइल के दौर मे याराना,
वो सुखा गुलाब किताबों में
तेरे आखिरी नाम का एहसास माना।
- भवानी देव
स्वरचित/मौलिक
राजस्थान/बाड़मेर
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