आंख खुली अवनि तल पावा,
दिव्य ज्योति इक दर्शन पावा।
अबोध अज्ञानी बन कर हम,
रमते दुनिया कुशल क्षेम पावा।।
शनैः शनैः दृग पलक झपकत,
सृष्टि विधा की रचना झलकत।
मै अबोध अकिंचन बन देखा,
आते जाते सृष्टि क्रम झलकत।।
यत्र तत्र सर्वत्र ही खुशी व गम,
माधुर्य ओज झपकत ही कम।
राम रहीम मिलन मन देखा,
अपन को पाया अंक आवेष्टित।।
थाल बजत कहीं गम का छाया,
आसूं बहत कहीं छलकत माया।
दुन्दुभि बाजन साजन आंगन,
उठते गिरते जन सृष्टि को पाया।।
ऊषसि वेला आगम मन रमता,
वहीं कोई मुरझाता मन पाता।
खिलखिल हसंता पंकज बाग,
बाग बाग पुनः व्यथित वो होता।।
सृष्टि सृजन की यही मन करनी,
विधा ही रमनी कृत मन भरनी।
ओम चक्षु मन सब रम निरखत,
इतस्तत:जग प्रेम पीड़ा लखनी।।
भ्रम उल्लास भ्रमित जन देखा,
प्राणी प्राण उन्मिलित ही देखा।
नयन मिचत सृष्टि सृजन चले,
ओम ओम मे जग सृष्टि देखा।।
डॉ ओमप्रकाश द्विवेदी ओम
कवि/पत्रकार
पड़रौना
9415363758
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